Saturday, 13 June 2020

न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ, क़याम अब के सर-ए-रह-गुज़र हमारा हुआ













न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ ।


क़याम अब के सर-ए-रह-गुज़र हमारा हुआ ।


ग़रज़ रही न कभी मंज़िलों से कोई हमें ।


हमेशा अपने ही अंदर सफ़र हमारा हुआ ।














उसी की रौशनी काम आई उम्र-भर अपने ।


जो इक सितारा फ़क़त शाम-भर हमारा हुआ ।


हमारे हिस्से में दीवार ही रही दिन रात ।


कोई दरीचा हमारा न दर हमारा हुआ ।














हमारे ख़ूँ से गुज़र कर ही तेग़-ए-बर्क़ बुझी ।


हमारे ख़स में उतर कर शरर हमारा हुआ ।


ज़र-ए-सुख़न जो लुटाया है रास्ते में कहीं


तो दूर दश्त-ए-हवा में ख़तर हमारा हुआ ।


रहे हैं बे-समर ओ साया ही सर-ए-हस्ती ।














बराए नाम यहाँ पर शजर हमारा हुआ ।


इसी में उलझे हुए हैं हमारे पाँव अभी ।


जो एक ख़्वाब कभी सर-ब-सर हमारा हुआ ।


किसी सनद की ज़रूरत नहीं पड़ी है ‘ज़फ़र’ ।


हमारा ऐब ही आख़िर हुनर हमारा हुआ ।


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